क्या आपने कभी सपरीवार,  
किसी धरना प्रदर्शन मे शिरकत किया है???

नारे लगाए, जुलूस मे पैदल चले, पुलिसिया बूटों और लाठियों के सामने से मुठ्ठियां उछालते इंकलाबी आवाज उठाई ?? 
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मै पार्टी कार्यकर्ताओं से राजनैतिक कार्यक्रम या पूड़ी-500 वाली रैली की बात नही कर रहा। 

इजराईल मे नेतान्याहू ने ज्यूडीशियरी को कन्ट्रोल करने की कोशिश की। जनता सड़को पर उमड़ आई, अब नेतान्याहू बैकफुट पर हैं। कभी टयूनिशिया से अरब स्प्रिंग ने मध्यपूर्व की राजनीति बदल दी थी। अपनी जिंदगी मे मैने वैश्विक स्तर पर कई इवेन्ट देखे हैं। 

भारत मे वह चेतना नहीं दिखती। 
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आप असहमत हो सकते हैं। भारत मे जेपी का आंदोलन, और अन्ना आंदोलन को गिना सकते है। मगर ध्यान से देखा जाए, तो जेपी आंदोलन तब के विपक्ष की अगुआई मे हुआ था। अन्ना आंदोलन भी, हैण्ड इन ग्लव, संघ का प्रायोजित, फण्डेड और मीडिया के सहारे खड़ा हुआ आंदोलन था। 

मौजूदा दौर मे सीएए को लेकर शाहीन बाग, और किसान आंदोलन को कुछ हद तक इस कैटगरी मे ले सकते है। मगर यह मुख्यतः पीड़ित समुदाय का स्वहितरक्षा के सीमित मुद्दे पर आंदोलन ही था। 
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इमरजेंसी के पहले तो खूब बमचक हुई। लेकिन इमरजेंसी लग जाने के बाद- एकदम सुन्न सपाट.... 19 महीने  कोई आंदोलन नही हुआ। इंदिरा ने स्वेच्छा से ही इमरजेंसी हटाई। 

राम मंदिर आंदोलन और संघ के गौरक्षा जैसे आदोलन तो कहीं से भी संवैधानिक मूल्यों और उत्तम प्रशासन, या नीतियो के लिए नही थे। ये हूलीगन्स का, हूलिगन्स के लिए, हूलिगनिज्म के प्रसार हेतु आंदोलन था। 

उन्होने किया, फायदा लिया। 

निर्भया के मामले मे इंडिया गेट पर कैण्डल जलाने वालों की भीड़ फैशनेबल थी। तब सरकार से डर नही लगता था, सो निकल गए। लट्ठ रॉड लेकर पुलिस और ट्रोल खड़े होते, तो एक न निकलता। 

वैसे तो लाठी खाने को शिक्षक, सरकारी कर्मचारी भी निकलते है, हड़ताल, जुलूस करते है। पर इसमे इमिडियेट निजी हित होता है। पैलेट गन लेकर पुलिस सामने खडी हो, तो आम हिंदुस्तानी इजराइल की तरह अपनी न्यायपालिका की स्वायत्ता, लोकतंत्र की रक्षा जैसे गूढ मसलों प्रदर्शन करने को आने खोल से कतई बाहर न निकले। 
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तभी फयूहरर से मिलने गए सुभाष के सामने भारत की खिल्ली उड़ाई गई - "कुछ लाख अंग्रेज 200 साल से 40 करोड़ भारतीयों पर राज कर रहे हैं,.. लानत है। "

हांलांकि 20 साल की लंबी राजनीतिक शिक्षा से, गांधी ने कुछ पुंसत्व जगाया था। इसका फायदा मिला उन्हे, 1942 मे जब सारी कांग्रेस लीडरशिप जेल मे थी। तो भारत छोड़ों आंदोलन आम लोगो ने अपने बूते चलाया। इस आंदोलन ने एटली को भारत से पिंड छुड़ाने को मजबूर किया। 

लेकिन आजादी के बाद कीे पीढ़ियों को नर्म, गुदगुदा लोकतंत्र मिला। बहुत हुआ तो अगले चुनाव मे उसकी सजा दे देते। शनै शनै लोकतंत्र का मतलब, अगले चुनाव का इंतजार करना हो गया।
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और फिर होता यह है कि 5 साल कुढ़ने के बाद जब बटन हाथ मे आता है, तो पुलवामा, मुसलमान, जाति और एडविना के नाम वोट डाल आते हैं। अपने मुद्दो मे, अधिकारो, संविधान के मूल ढांचे मे हेरफेर जैसे मसलों की समझा नहीं। और सबसे बड़ी बात - आदत नही। 

धरना, मोर्चा, प्रदर्शन नेतागिरी का पर्याय है, और नेतागिरी कोई अच्छी बात नहीं। हममे से अधिकांश लोगों को पब्लिक स्पीकिंग का अनुभव नहीं। विचारधारा और दृढता नहीं। प्रशासन और उसके दायरे की समझ नहीं। 

माहौल और हवा के साथ बहते हैं। सड़क पर नारा लगाने मे शर्म आती है- कोई देखेगा, तो क्या कहेगा ??? इस तरह ग्रूम किया व्यक्ति, उससे बना समाज अपनी आजादी खोने के लिए अभिशप्त है। इसमे आरएएसएस, मोदी या भाजपा को दोष नहीं। ने तो बस, हमारी रीढहीनता का फायदा उठाया है।

खैर, बात बहक गई ...मै पूछ रहा था ..
क्या आपने , कभी धरना प्रदर्शन मे शिरकत की है???